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नवरेह महोत्सव के समापन समारोह के लिए विषेश बिंदू

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जबलपुर दर्पण। कश्मीर के मूल निवासी हिंदू (जिन्हें कश्मीरी पंडित की संज्ञा दी जाती है) विगत 33 वर्षों से अपने ही देश में विस्थापन का दंश झेल रहे हैं। इन्हें कट्टरपंथी, अलगाववादी एवं सशस्त्र आतंकवादियों की बर्बरता, जातीय संहार के कारण भारतीय तिरंगे, राष्ट्रीय संविधान और अपनी मान-मर्यादा की रक्षार्थ देश के अन्य भागों में शरण लेनी पड़ी। इन्हें अपनी जन्म भूमि कश्मीर से बंदूक की नोक पर भागने पर विवश किया गया। कश्मीर के हिंदुओं के सामूहिक नरसंहार (जिनोसाइड) के बाद भी यह समुदाय आज नव वर्ष की प्रभात वेला में धन-धान्य से सुसज्जित थाली के दर्शन कर सपरिवार यह संकल्प ले रहा है कि वह कश्मीर की शांति तथा सांस्कृतिक पुनर्स्थापना के लिए समर्पित रह कर पुनः अगला नवरेह कश्मीर में सपरिवार स्थायित्व के साथ मनाने के प्रति कृत संकल्प रहेगा। कश्मीर के इस विस्थापित समाज को आज मार्ग दर्शन की अपेक्षा है कि वह कैसे इस निर्वासन काल में अस्तित्व एवं अस्मिता के संघर्ष को बनाए रखते हुए घाटी वापसी के संकल्प को पूर्णतया साकार करेगा, कैसे उसका मार्ग प्रशस्त होगा, कैसे वह तनावों, संघर्षों एवं झंझावातों से उभरेगा। आज इस समाज के पास वैद्याचार्य शिर्यभट्ट का त्याग भी है, जीवन आदर्श भी है, सम्राट ललितादित्य के शौर्य-पराक्रम जैसी प्रेरक गाथाएं हैं, घर-द्वार की स्मृतियां और कश्मीर वापसी की ललक है। यह समाज आशावान है।

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