संपादकीय/लेख/आलेख

श्रेष्ठता के तीन श्रेष्ठ लक्षण

अच्छे साधनों से आदमी की व्यवहार जगत में पहचान तो हो सकती है लेकिन वास्तव में सही से उसकी पहचान श्रेष्ठ साधना से ही होसकती हैं। मानव ऊँचे भवनों से लोक व्यवहार में भवनपति बन श्रेष्ठ हो सकता है लेकिन वास्तव में सही से श्रेष्ठता के लिए उसकी ऊँचीभावनामति जरूरी है । ऊँचे उच्चारण करने से श्रेष्ठत्व नहीं आता है बल्कि जीवन व्यवहार में अच्छे आचरण से श्रेष्ठ आचरण स्वतः आताहै । समझपूर्वक,जागरूकतापूर्वक आदि हमारे द्वारा कुछ कदम जीवन में उठाए जाएं तो काफी हद तक अनेकान्तवाद को अपनाकर इनसेबचने में भी हम सफल हो सकते हैं । धैर्य की कमी,अज्ञानता आदि कई कारण इसमें निमित्त बनते हैं इन सब के पीछे। हम समझकरजागरूकतापूर्वक काफी हद तक अपने प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा समय – कम ज्यादा हो सकता है उसको सहनशीलता से उदय में आयेकर्म को स्वयंकृत कर्म समझकर सहन कर सकते हैं । जिससे कर्मों से मुक्त हो सकते हैं । इसके सबसे बड़े उदाहरण एवं आदर्श मुनिगजसुकुमाल जी है जिन्होंने अल्पवय में ही दीक्षा के प्रथम दिन अपने ससुर द्वारा माथे पर गीले चाम की पाल को बांधे जाने पर अपनास्वयंकृत कर्म का उदय समझकर समभाव से सहन कर मुक्तिश्री का वरण किया और भी कई उदाहरण ऐसे प्राप्त होते हैं हमें। कर्म कीगति प्रबल पुरुषार्थ के द्वारा टाली जा सकती है काफी हद तक साधनामय पध्दति से सम्यक्दर्शन के द्वारा| एक सफल साहित्यकारहोने के नाते पैनी दृष्टि एक सर्व साधारण व्यवहारिक दृष्टिकोण को लेकर होती है, वो बहुत जरूरी होती है,एक सफल लेखक के लिए।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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