उत्तम संयम धर्म हमें सिखाता है आत्म नियंत्रण
आलेख : आशीष जैन (उप-संपादक) दैनिक जबलपुर दर्पण समाचार पत्र
दशलक्षण पर्यूषण महापर्व के शुभ अवसर पर दिगंबर जैन समाज के नागरिक छटवें दिन धूप दशमी के दिन उत्तम संयम धर्म का पालन करते है। मंदिर में भगवान के दर्शन अभिषेक एवं पूजन के साथ धूप चढा कर जीवन में खूशबू फैले ऐसी कामना करते हैं। उत्तम संयम धर्म का सीधा संबंध आत्म नियंत्रण से होता है। अपनी पंच इंद्रियों को वश में कर के कल्याण कर सकता है। अपनी पसंद-नापसंद एवं गुस्से का त्याग कर अपना मन प्रलोभनों से मुक्त एवं स्थिर कर संयमित रहना ही उत्तम संयम धर्म है।
संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागर महामुनिराज कहते हैं कि संयम का अर्थ है एक सशक्त सहारे के साथ हल्का सा बंधन। यह बंधन निर्बंध करता है। आज तो हम बिना ब्रेक की गाड़ी में नीचे जाते हुये भी आँखें मींचे हुये बैठे हैं। क्या ब्रेक रूपी संयम के बिना जीवन की गाड़ी सुरक्षित रह पायेगी?
संयम का अर्थ है स्वयं पर नियंत्रण, रोक कर या दबा कर रखने की क्रिया या भावना है। चंचल मन को वश में रखकर नियंत्रण करना है। जैन धर्म में संयम का विशेष महत्व है इस गुण से व्यक्ति के जीवन को खुशियों एवं सुखों से भर देता है। इन्द्रिय संयम , वाणी का संयम , मन का संयम ही व्यक्ति को महान बनाता है। संयम भारतीय संस्कृति का मूल है। विलासिता, निर्बलता और अनुकरणीय वातावरण से न संस्कृति का उदय होता है और न ही विकास।
उत्तम संयम धर्म का दशलक्षण पूजा पुस्तकों में विस्तृत वर्णन है। काय-छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री-मन वश करो। संयम-रतन संभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं। उत्तम संयम गहु मन मेरे, भव-भव के भाजें अघ तेरे। सुरग-नरक-पशुगति में नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाहीं। ठाहीं पृथी जल आग मारुत, रूख त्रस करुना धरो। सपरसन रसना घ्रान, नैना, कान मन वश करो। जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तू रुल्यो जग-कीच में। इक घरी मत विसरो करो नित, आव जम-मुख बीच में।
सभी नागरिको को संयम का महत्व तो अच्छे से पता होता है लेकिन ये उसका सही तरीक़े से पालन नही करते। संयमित जीवन से व्यक्ति बहुत सी उपलब्धियों को आसानी से प्राप्त कर सकता है। उत्तम संयम धर्म से मनुष्य गंभीर बनता है। बड़ी से बड़ी समस्या में कभी भी नही उलझ सकता है और सुख, समृद्धि, उन्नति तथा शांति को सहज ही प्राप्त कर सकता है। सभी को पर्वराज पर्यूषण पर्व की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। जय जिनेंद्र।