जबलपुर दर्पणमध्य प्रदेश

डॉ. अर्जुन शुक्ला सात वर्षों से कर रहे है नर्मदा पर शोध

जबलपुर दर्पण। गंगा-यमुना की तरह नर्मदा ग्लेशियर से निकली नदी नहीं है । यह मुख्य रूप से मानसूनी वर्षा और अपनी सहायक नदियों के जल पर निर्भर है । वाशिंगटन डीसी स्थित वर्ल्ड रिर्सोसेज इंस्टीट्यूट ने वर्ष 2003 में नर्मदा को विश्व के छह संकटग्रस्त नदी बेसिनों में से एक माना था । दिसंबर, 2013 में इसी संस्थान की ओर से प्रकाशित एक वर्किंग पेपर में नर्मदा बेसिन को विश्व के 100 सबसे बड़े नदी बेसिनों में सर्वाधिक जल तनाव वाले 16 नदी बेसिनों में शुमार किया था । ये तथ्य नर्मदा बेसिन में जल संकट की ओर से इशारा करते हैं । अपनी नदियों को शुद्ध रखना सिर्फ हमारे गुजर-बसर के लिए ही जरूरी नहीं है, बल्कि मानवीय भावनाओं को ऊपर उठाए रखने के लिए भी ऐसे प्रतीक बहुत जरूरी हैं । साथ ही शोध में नैतिकता और समाज हित का सामंजस्य होना भी बेहद जरुरी है l यह कहना है शासकीय होम साइंस कालेज जबलपुर में शिक्षण सेवा दे रहे नर्मदा रत्न, विज्ञान भूषण से सम्मानित विश्व रिकार्ड्स कीर्तिमान प्राप्त डॉ. अर्जुन शुक्ला का जो लगातार सात वर्षों से नर्मदा पर शोध कर रहे है ।

डॉ. अर्जुन ने बताई नदियों के प्रदूषण की दो वजहें, जिस पर चिंतन बेहद जरुरी
एक को हम कहते हैं – प्वाइंट सोर्स यानी नदियों में किसी एक जगह से बहुत सारा कचरा गिरना – जैसे उद्योगों से निकला कचरा कुछ स्थानों से भारी मात्रा में नदी में गिरता है । दूसरे को कहा जाता है – नॉन-प्वाइंट सोर्स, इसमें वो कचरा आता है जो नदियों के पूरे रास्ते अलग-अलग कई जगहों से उसमें गिरता रहता है – जैसे खेती की ज़मीन से होकर नदी में जाने वाला जल । खेतों से होकर आने वाला जल भी नदियों के लिए नुकसानदेह है क्योंकि खेती में केमिकल्स का इस्तेमाल होता है। मिटृटी को मिट्टी कहने के लिए उसमें कम से कम दो फीसदी ऑर्गैनिक (जैविक या खाद से जुड़ा) तत्व होना चाहिए। अगर आप इस ऑर्गैनिक तत्व को निकाल देंगे तो हम उस मिट्टी को रेत कहेंगे, और ऐसी जमीन खेती के लिए सही नहीं है। इससे हम उस जमीन को रेगिस्तान बना रहे हैं, जिसने हजारों सालों से हमें भोजन दिया है । भारत एक राष्ट्र के रूप में अगर नदी प्रदूषण पर काबू पाने के लिए गंभीर है, तो इसके लिए पीपीपी (प्राइवेट-पब्लिक पार्ट्नरशिप) को सही तरह से चलाने की जरूरत है । जिस तरह बहुत कम समय में देश की सड़कों का विकास किया गया, उससे यह पता चलता है कि इस तरह के काम संभव हैं। बस अब तक इन चीज़ों को प्राथमिकता नहीं दी गई है। इन्हें ठीक करने में कई दशक नहीं लगते। टेक्नोलॉजी के मौजूद होने के कारण बस योजनाओं को लागू करने के इरादे और कमिटमेंट की जरूरत है। उम्मीद है कि अगले कुछ सालों में हम अपनी नदियों की माता-जैसी पुरानी छवि को वापस लाने में सफल हो जाएंगे, जो हर किसी की अशुद्धि को साफ करते हुए उन्हें एक स्वच्छ भविष्य दे सकती हैं।

औषधीय पौधों पर देना होगा जोर

डॉ. अर्जुन ने बताया कि औषधियों के कारण ही देश में आयुर्वेद, योगा, सिद्धा, युनानी, होम्योपैथी का जन्म हुआ। इनके बल पर ही वैद्य असाध्य रोगों का इलाज कर पाते थे। रामायण काल में संजीवनी बूटी इसी से जुड़ी है। अश्वगंधा, चंद्र सूल, बाबची, कालमेघ, ईसबगोल, सफेद मूसली, आंवला, महुआ, सिरिस, कदली, सलाई, शतावर, गुडमार, सर्पगंधा, जंगली प्याज की शोध पर देना होगा जोर । प्रत्येक मनुष्य को पूरे जीवन में जितनी ऑक्सीजन की जरूरत होती है, उतनी ऑक्सीजन की पूर्ति के लिए उसे कम से कम सात पेड़ लगाने की जरूरत होती है ।

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