साहित्य दर्पण

हाय महगाई मार गई

चारो तरफ महगाई का ख़ौफ़ है
आधे हुए सब अपने शौक़ है
तन के कपड़े मँहगे हो गए,
मँहगा हुआ अनाज जी
सौदा समान के देख भाव
आँसू झलक आये आँख जी
सावन में काले बदरा साक
महंगाई की हुई बरसात जी।

बढ़ी कीमत नमक तेल की
दाल-दलिया और रोटी की
रोजमर्रा समान की कीमत
आसमान छूते आज जी
आमदनी अठन्नी है खर्चा रुपैया
कैसे चले घरवार जी
मेहनत कमाई जीतोड़ करे है
महगाई देती कमरतोड़ जी।

स्कूलों की पढ़ाई हुई भारी
रकम चली गई जेब से सारी
जितनी रकम उतनी पढ़ाई
शिक्षा अब चली लंगड़ाई।
दस की किताब सौ में आवे
सौ की वर्दी पाँच सौ बताबे
ये खेल में सब उलझे है
सब खेले पर न सुलझावे।

दूध दवाई सब महँगी है
मुफ्त का पानी कीमत बढ़ी है
बिन पैसे की बात न होवे
पैसे बिन कोई जबाब न देवे।
हाय महंगाई मार गई जी
अधमरा सा डाल गई जी
खिचड़ी से भी पेट भरे न
रसोई में न जले आग जी।

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