संपादकीय/लेख/आलेख

एकलव्य का अंगूठा

स्कूल यूनीफॉर्म का मोजा पहनते ही पांच में से तीन अंगुलियां बाहर आ गईं। विधवा मां ने देखा तो उसकी समझ में नहीं आया कि क्या किया जाए।

पर समझदारी तो उसने बेटे को बचपन में ही पिला दी थी। इसलिए दीनू यानी दिनेश ने कहा, “मां आज स्टेट डिबेट में सेलेक्शन हो जाने दीजिए, फिर तो तुम्हारा यह बेटा फर्स्ट प्राइज जीत ही लाएगा। और इनाम की जो रकम मिलेगी, उसमें मेरा मोजा तो क्या, देखना तुम्हारे लिए साड़ी भी ले आऊंगा।”

किसी बीड़ी कंपनी के थैले जैसे प्लास्टिक बैग में कापी-किताबें ले कर दीनू स्कूल जाने के लिए निकल पड़ा। दीनू छोटा था, तब की एक बात मां को याद आ गई। एक बार वह झोपड़ी के बाहर पड़ोस के बच्चों के साथ खेल रहा था। तभी किसी बच्चे ने उससे पूछा, “दीनू ऐसा कौन सा काम है, जो तू जीवन में एक बार जरूर करना चाहता है?”

नन्हे दीनू ने कहा था, “सुना है कि पेट भर खाने के बाद डकार आती है। मैं चाहता हूं कि जीवन में एक बार मुझे भी डकार आए।”

उसी दिन से पेट काट कर बेटे को पढ़ा-लिखा कर सक्षम बनाने के लिए मां मेहनत कर रही थी और दीनू भी पढ़ाई से ले कर हर प्रवृत्ति में सब से आगे था। 

स्कूल पहुंच कर प्रार्थना से ले कर क्लास में भी वह शेखर मास्टर के आगे-पीछे रहने की कोशिश करता रहा। जब से उसे पता चला था कि बेस्ट स्पीकर के अवार्ड में 11हजार रुपए नकद इनाम है, तब से स्टेट डिबेट कंपटीशन उसके लिए प्रतियोगिता नहीं  लक्ष्य हो गया था।

शेखर मास्टर को ही नेशनल डिबेट कंपटीशन में भेजने के लिए विद्यार्थियों का सेलेक्शन करना था। पहला नाम था दीनू का था और दूसरा नाम था उनके घर पर्सनल ट्यूशन के लिए आने वाले संजय का। शेखर मास्टर ने एक झटके में एक नाम निकाल दिया और उस समय भी एकलव्य का अंगूठा कट गया।

वीरेंद्र बहादुर सिंह

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