संपादकीय/लेख/आलेख
पापा की परी
सपने तब तक अपने थे
पापा जब तक घर में थे।
खुशियों से रिश्तेदारी थी
जब तक पापा की प्यारी थी।
शहर, गांव और मोहल्ला
लुटाते थे स्नेह, नहीं था गीला।
सबसे बड़ा धन था, पापा की तनख्वाह
छोटी छोटी खुशियों को मिलती थी पनाह।
दूर होकर भी रहते थे पास पापा
सभी दोस्तों को थे ख़ास पापा।
फोन नहीं थे बस पाती थी
पापा की सीख पहुंचाती थी।
हिम्मत ही नहीं थी ना कहने की
मजबूरी न थी कुछ भी सहने की।
पापा अब भी रोज़ याद आते हैं
वो सारे खुशियों के पल दोहरा जाते हैं।
एक और जन्म अगर मैं पाऊं
फिर पापा की परी बन जाऊं।