इंद्रियों को वश में करना सबसे बड़ा तप है
आलेख : आशीष जैन (उप संपादक) दैनिक जबलपुर दर्पण समाचार पत्र
दसलक्षण महापर्व के सातवे दिन एकादशी को दिगंबर जैन समाज उत्तम तप धर्म का पालन करते है। तप का मतलब सिर्फ उपवास भोजन नहीं करना नहीं है बल्कि तप का असली मतलब है कि इन सब क्रिया के साथ अपनी इच्छाओं और ख्वाहिशों को वश में रखना। ऐसा तप अच्छे गुणवान कर्मों में वृद्धि करते है। साधना इच्छाओं की वृद्धि ना करने का एकमात्र मार्ग है। पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ने लगभग छह महीनों तक बिना खाए बिना पिए तप किया और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त किया था। जैन तीर्थंकरों जैसी तप साधना करना इस जमाने में संभव नहीं है पर हम भी ऐसी ही भावना रखते है और पर्यूषण पर्व के दसो दिनों के दौरान उपवास बिना खाए बिना पिये, ऐकाशन एकबार खाना-पानी करतें है और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करने की राह पर चलने का प्रयत्न करते हैं।
पूजा पुस्तकों में तप चाहे सुरराय, करम शिखर को वज्र हैं। द्वादस विधि सुखदाय, क्यों न करे निज शक्ति सम। उत्तम तप सब माहि बखाना, करम-शैल को वज्र समाना। वस्यो अनादी निगोद मंझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा। धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता। श्रीजैनवाणी तत्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता। अति महा दुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरै। नर-भव अनुपम कनक घर पर, मणिमयी कलसा धरै।
इंद्रियों को वश में करना सबसे बड़ा तप है, किसी भी प्राणी का द्रोह अथवा तंग करना, किसी भी जीव के प्रति कुभाव रखना ही सबसे बड़ा दान है। सभी कामनाओं का त्याग ही सबसे बड़ा तप है। काम सुख का विचार तक रखने वाला व्यक्ति सबसे बड़ा तपस्वी है। तपस्या के माध्यम से ही हम अपनी अंतरात्मा को शुद्ध कर सकते हैं। जिससे हमें शुद्ध संकल्प, उमंग, उत्साह व ऊर्जा प्राप्त होती है। हमारे मन में व्यर्थ और नकारात्मक विचारों का प्रभाव बंद हो जाता है और आंतरिक बल, क्षमता व प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने वाले सकारात्मक विचार उत्पन्न होने लगते हैं। तपस्या भी मानसिक, वाचिक और कर्म आधारित है। मन को सभी इंद्रियों व उनके सुख मे जाने से रोकना मानसिक तप है। व्यर्थ नहीं बोलना और मौन रखना वाचिक तप है। किसी अभीष्ट की प्राप्ति हेतु व्रत रखना या अपने शरीर को कष्ट आदि देना जैसे हठयोग। प्रचीन काल में ऋषि मुनि तपस्या के द्वारा अपने शरीर में कुंडलिनी शक्ति जाग्रत कर उसे मूलाधार चक्र से सहस्त्रार चक्र में ले जा कर ब्रह्म परमात्मा शिव का साक्षात्कार कर अपने शरीर को दिव्य बना लेते थे और साधना तपस्या से रिद्धि सिद्धिया प्राप्त कर प्राणो को जीत कर हजारो वर्ष जीवित रहते थे। भारत में प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है क्योंकि ये समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे। ऋषि-मुनि अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज कल्याण का कार्य करते थे और लोगों को समस्याओं से मुक्ति दिलाते थे। तपस्या भी मानसिक, वाचिक और कर्म आधारित है। मन को सभी इंद्रियों व उनके सुख मे जाने से रोकना मानसिक तप है। व्यर्थ नहीं बोलना और मौन रखना वाचिक तप है। किसी अभीष्ट की प्राप्ति हेतु व्रत रखना या अपने शरीर को कष्ट आदि देना जैसे हठयोग आदि सब शारीरिक तप है। गीता में तपस्या के तीन प्रकार बताये गये हैं शारीर तप, वा्मय तप और मानस तप है। इतना ही नहीं हम तपस्या और साधना के जरिए अपने व्यक्तित्व को भी निखार सकते हैं। तपस्या की शक्ति के सहारे हम अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और स्वयं को मजबूत बना सकते हैं। ईर्ष्या, लोभ और मोह जैसी कमजोरियों से छुटकारा पा सकते हैं और अपने मन को अपने वश में रख सकते हैं। सभी को पर्वराज पर्यूषण की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। जय जिनेंद्र।