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गरीब आदिवासियों को नही मिलता रोजगार तो महुआ बीनकर पेट पालने मजबूर

जान जोखिम में डालकर बीनते हैं महुआ

मड़ियादो। गांव-देहात व दूर दराज के जंगली गावो में पंचायत द्वारा मनरेगा के तहत कराए जाने वाले सभी कार्य जे सी बी मशीनों से कराए जाने के कारण मजदूरों को कार्य उपलब्ध नही हो पाते है। जिस कारण आदिवासी लोगो को अपने परिवार के भरण पोषण हेतु जंगली फसलों जैसे कि महुआ, आचार व तेंदुपत्ता की फसल पर निर्भर रहना पड़ता है और उसी फसल को बेचकर अपना व अपने परिवार के भरण पोषण साहित शादी व्याह भी करते है। सम्बददाता द्वारा जंगली इलाके के गाँव कलकुआ, बाछमा, उदयपुरा, घोघरा, मजरा आदि का भर्मण करने पर ऐसा ही मामला देखने को मिला। जब आदिवासी लोग अपने बच्चो सहित सुबह 3-4 बजे से ही जंगलों में महुआ के पेड़ो के निचे महुआ बीनते देखे गए। जो दोपहर 12 बजे तक चिलचिलाती धूप में भी महुआ बीनते रहे।

महुआ की फसल बनी सहारा

महुआ बीनकर गरीब आदिवासी पेट पाल रहे है, कहते है कि पेट के वास्ते कुछ भी कर गुजरते हैं। लोग ठीक ऐसा ही नजारा मड़ियादो अंतर्गत आने वाले ग्रामीण वनांचलो में नजारे देखने को मिले हैं। जहाँ पर चिलचिलाती धूप में भी छोटे छोटे बच्चों के साथ परिवार के सदस्य तपा देने वाली गर्मी में पेट भरने के वास्ते से इस समय महुआ की फसल हर जगह होती है। जिसे लोग बीन कर रख लेते हैं और सुखा कर रख लेते हैं फिर इस फसल को स्थानीय बाजारों में उचित दामो पर बेच कर पेट भरने का जरिया बना हुआ है। जिसमे ना तो कोई लागत आती हैं, ना ही इस फसल को को तैयार करने में कोई मेहनत करनी पड़ती हैं। ऐसे में देखा जाय तो ग्रामीण इलाकों में रोजगार की भी कमी होती हैं और महुआ की फसल से लोगो को रोजगार भी मिलता हैं। साथ ही लोगो ने बताया कि किसी ओर की नोकरी से भी बच जाते हैं और महुआ बीन कर अच्छा पैसा भी मिलता है। इस संबंध में जब मजली बहु आदिवासी, हक्कन आदिवासी, जमना आदिवासी, कल्लो बाई आदि से बात की तो उनका कहना है कि सुबह 3-4 बजे उठकर महुआ के पेड़ो के नीचे आना पड़ता है और दोपहर तक बीनते रहते है और अगले दिन फिर इसी समय आ जाते है। जिस कारण जानवर महुआ को न खा पाए अगर सुबह हो गई तो गाय व जंगली जानवर महुआ को खा जाते है। जिससे हमें नही मिल पाते, इस कारण आधी रात से ही अपने बच्चो सहित पेंडो के निचे आकर रखवाली करना पड़ती है। कभी कभी जंगली खूंखार जानवर भी मिल जाते है। जिससे जान का खतरा रहता है लेकिन अपने परिवार के पेट को पालने का जंगली फसल ही एक मात्र जरिया हम लोगो के पास है। हमारी पंचायत में तो मजदूरी मिलती नही है, सभी कार्य मशीनों से करा लेते है और पीने परिवार की हाजरी डालकर पैसे निकाल लेते है। इस सम्बंध में जब सेठ महेश गुप्ता व रज्जु साहू से बात की तो उनका कहना है कि इस वर्ष महुआ की अच्छी फसल आयी है व सूखे महुआ 40 रुपये किलो तक बिक रहे है। जिस कारण जंगली आदिवासियों को कुछ माह अपने परिवार का भरण पोषण कर लेते है।

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