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जितना मिला है उसी में खूश रहो यही है उत्तम शौच धर्म

आलेख : आशीष जैन (उप संपादक) दैनिक जबलपुर दर्पण

धरि हिरदै संतोष, करहु तपस्या देह सों। शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में। उत्तम शौच सर्व-जग जाना, लोभ ‘पाप को बाप’ बखाना। आशा-पास महादु:खदानी, सुख पावे संतोषी प्रानी। प्रानी सदा शुचि शील-जप-तप, ज्ञान-ध्यान प्रभाव तें। नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष स्वभाव तें। ऊपर अमल मल-भर्यो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहे। बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गुन साधु लहे।

दशलक्षण पर्यूषण पर्व के चौथे दिन उत्तम शौच धर्म दिवस में जैन श्रावक एवं श्राविकाएं प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना का प्रयास करते है। अपने मन से दूसरों के धन एवं स्त्री की अभिलाषा भी लोभ की ही श्रेणी है।

संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागर महाराज उत्तम शौच धर्म को सरल शब्दों में वर्णन करते हुए कहते हैं कि लोभी व्यक्ति धर्म को भी खा जाता है। धर्म के साथ खाओ पर धर्म का मत खाओ। निर्माल्य द्रव का भक्षण मत करो इस महान पाप से बचना चाहिए। जिनका मन पवित्र होता है उनके सामने हमारे लोभ भी भय खाते हैं। संतोष अमृत है और तृष्णा विष के समान होता है। पवित्र भाव के द्वारा ही अशुद्ध शब्द पूर्णता स्वस्थ हो सकता। लोभ पाप का बखाना न जाने क्या-क्या खाना। लोभी गेहूं के साथ-साथ भूसा भी खा लेता है।

मुनिश्री प्रमाण सागर महाराज उत्तम शौच धर्म को परिभाषित करते हुये कहते है कि उत्तम शौच का अर्थ है पवित्रता। आचरण में नम्रता, विचारों में निर्मलता लाना ही शौच धर्म है। बाहर की पवित्रता का ध्यान तो हर कोई रखता है लेकिन यहां आंतरिक पवित्रता की बात है। आंतरिक पवित्रता तभी घटित होती है जब मनुष्य लोभ से मुक्त होता है। आवश्यक्ता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति के बीच को समझकर चलना होगा क्योंकि जो अपनी आवश्यक्ताओं को सामने रखकर चलता है वह कभी दुखी नहीं होता और जिसके मन में आकांक्षाएं हावी हो जाती हैं वह कभी सुखी नहीं होता। हावी होती हुई आकांक्षाएं आसक्ति संग्रह के भाव की ओर ले जाती है और आसक्ति पर अंकुश न लगाने पर अतृप्ति जन्म लेती है, अंततः प्यास, पीड़ा आतुरता और परेशानी बढ़ती है। धर्म पथ पर चलते हुए मन में, विचारों में और आचरण में शुद्वता लानी होगी। कषाय को, लोभ को और मलिनता को कम करना होगा। धनाकांक्षा, भोगाकांक्षा, दुराकांक्षा और महत्वाकांक्षा इनकी तीव्रता से अपने आप को बचाकर ही उत्तम शौच धर्म को अपने आचरण में लाया जा सकता है।

उत्तम शौच धर्म हमे यही सिखाता है कि शुद्ध मन से जितना प्राप्त हुआ है है उसी में खूश रहकर परमात्मा का हमेशा धन्यवाद मानना चाहिए। हर व्यक्ति अपनी आत्मा को शुद्ध बनाकर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है। सभी को उत्तम शौच धर्म की शुभकामनाएं। जय जिनेंद्र।

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